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ग़ज़ल
फ़सीहुल्ला नक़ीब
हास्य शायरी
कल एक नाक़िद-ए-'ग़ालिब' ने मुझ से ये पूछा
कि क़द्र-ए-'ग़ालिब'-ए-मरहूम का सबब क्या है
दिलावर फ़िगार
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शेर
कुश्ता-ए-रंग-ए-हिना हूँ मैं अजब इस का क्या
कि मिरी ख़ाक से मेहंदी का शजर पैदा हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा अज़ाब तेरा
जोश मलीहाबादी
शेर
हिसार-ए-ग़ैर में रहता है ये मकान-ए-वजूद
मैं ख़ल्वतों में भी अक्सर अज़ाब देखता हूँ